यह 13 अप्रैल 1986 की बात है, जब अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले सुभाष घीसिंग ने कहा था- “ मेरी पहचान गोरखालैंड है.”
लेकिन आज 22 साल बाद जब गोरखालैंड की मांग अपने चरम पर है और इन दिनों दार्जिलिंग, कर्सियांग, मिरिक, जाटी और चामुर्ची तक ताबड़तोड़ रैली और विशाल प्रदर्शन हो रहे हैं तब सुभाष घीसिंग का कहीं अता-पता नहीं है.
कहां हैं सुभाष घीसिंग ?
गोरखालैंड के नये नायक विमल गुरुंग
गोरखालैंड आंदोलन के नए नायक गोजमुमो के विमल गुरुंग हैं, जिनके इशारे पर पहाड़ के इलाके में लाखों लोग उठ खड़े हुए हैं.
“ सुबास घिसिंग इधर में घिस गिया.”
इस वाक्य के साथ कालिंपोंग के एक बुजुर्ग ने जब अपनी पोपली हंसी बिखेरी तो आसपास खड़े लोग भी हंसे बिना नहीं रह सके.
दार्जिलिंग, डुवार्स, तराई और सिलीगुड़ी को मिलाकर अलग गोरखालैंड बनाने के मुद्दे पर अब सुभाष घीसिंग की यही पहचान है. घीसिंग को बाय-बायडुवार्स के वीरपाड़ा नेपाली हाईस्कूल में कोई 25 हजार लोग सुबह से इक्कठा हुए थे. लेकिन शाम को जब जनसभा खत्म हुई तो लगता नहीं था कि भीड़ के जोश में कहीं कोई कमी है. यह सुभाष घीसिंग की नहीं, गोजमुमो की सभा थी.
गोजमुमो यानी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा. और अलग गोरखालैंड की मांग करने वाले नए नायक हैं विमल गुरुंग.
गोरखालैंड के अलग-अलग इलाके में लोगों ने इस नायक को पलकों पर बिठा कर रखा है. और गुरुंग ?
कभी बेहद आक्रमक नेता रहे गुरुंग बेहद विनम्रता के साथ कहते हैं- “सुभाष घीसिंग ने जनता के साथ धोखा किया. मैं अपने खून की आखरी बूंद तक लड़ूंगा. मैं मार्च 2010 तक अलग गोरखालैंड अलग करके दम लूंगा.”
1980 के आसपास गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट बनाकर भारतीय राजनीति में धमाका करने वाले सुभाष घीसिंग ने दार्जिलिंग और उसके आसपास के पहाड़ी इलाकों में एक ऐसी आग भर दी थी, जिसके बाद लगता ही नहीं था कि यह आग अलग गोरखालैंड के बिना बंद होगी.
कोई एक हजार से अधिक लोग गोरखालैंड की इस आग की भेंट चढ़ गए. इस हिंसक जनांदोलन के नेता सुभाष घीसिंग और उनके साथ के विशाल जन सैलाब ने अलग राज्य की मांग करने वाले देश के दूसरे नेताओं को भी आंदोलन की एक नई धारा दिखाई.
लेकिन 1988 में घीसिंग को मना लिया गया और फिर दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल बना कर उन्हें उसकी कमान सौंप दी गई. हालांकि घीसिंग के समर्थकों का एक बड़ा धड़ा मानता था कि काउंसिल के सहारे पृथक गोरखालैंड की मांग को खत्म करने की कोशिश की गई है. यही कारण है कि विमल गुरुंग जैसे समर्थक घीसिंग के खिलाफ उठ खड़े हुए. लेकिन यह विरोध असफल साबित हुआ.
दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल का राजपाट 20 साल तक चला और तब तक पृथक गोरखालैंड का मुद्दा राजनीतिक और जन संगठनों की ओर से लगभग हाशिए पर धकेल दिया गया.
कहते हैं, सत्ता और भ्रष्टाचार एक ही पतलून के दो पायंचे हैं और अगर ऐसा न हो तो भी सत्ता को काजल की कोठरी मानने से कौन इंकार करता है ? सुभाष घीसिंग भी इसी का शिकार हुए.
विमल गुरुंग कहते हैं- “ उन्होंने गोरखालैंड की मांग को भूला दिया और काउंसिल के भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए.”
आप पहाड़ के किसी भी इलाके में चले जाएं, गोजमुमो के नारे और झंडे आपको हर कहीं मिल जाएंगे.
2005 में इस इलाके को छठवीं अनुसूचि में शामिल किए जाने पर अपनी मुहर लगाकर घीसिंग विवादों में घिर गए थे. दूसरी ओर विमल गुरुंग उनके खिलाफ बगावती झंडा लहराते पहाड़ में घुम ही रहे थे. कोई सात महीने पहले गुरुंग ने गोजमुमो बनाकर तो जैसे गोरखालैंड आंदोलन में भूचाल ला दिया.
हालत ये हुई कि इसी साल मार्च में जब काउंसिल का कार्यकाल खत्म होने को था और सुभाष घीसिंग ने काउंसिल की कमान छोड़ते हुए त्याग पत्र दिया तो कहा गया कि घीसिंग से यह त्यागपत्र जबरदस्ती गुरुंग समर्थकों ने दिलवाया है.माकपा का राग ‘विदेशी’लेकिन गुरुंग की राह भी आसान नहीं है.
गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता सुभाष घीसिंग के समर्थक भी इस आंदोलन को एक बार फिर से अपने कब्जे में लेने की कोशिश में हैं. जिसके तहत गोरखालैंड के लिए बयानबाजी शुरु हो गई है. सुभाष घीसिंग की गोरामुमो के नेता तो विमल गुरुंग के आंदोलन को मुंगेरीलाल के सपने करार दिया है.
दूसरी ओर गुरुंग को राज्य सरकार के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है. नगर विकास मंत्री और माकपा नेता अशोक नारायण भट्टाचार्य तो सीधे-सीधे इस आंदोलन से जुड़े लोगों को “ विदेशी ” ठहरा रहे हैं.
हालत ये है कि सिलीगुड़ी में गोजमुमो की प्रस्तावित जनसभा के विरोध में माकपा आमने-सामने आ खड़ी हुई. 2 मई को तो माकपा कार्यकर्ताओं ने सिलीगुड़ी में जम कर आतंक मचाया और गोरखालैंड समर्थकों को जगह-जगह बेरहमी से मारा. इससे पहले 27 अप्रेल को गोजमुमो को सिलीगुड़ी में सभा करने की अनुमति ही नहीं मिली.
हालांकि गोजमुमो को दूसरे दलों का समर्थन भी मिल रहा है.
गोरखालैंड आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण इलाके सिलीगुड़ी से कोई 25 किलोमीटर दूर है नक्सलबाड़ी और सिलीगुड़ी-नक्सलबाड़ी के रास्ते में हाथीघिसा में रहते हैं, नक्सल आंदोलन के शुरुवाती नेताओं में से एक कानू सान्याल.
कानू कहते हैं- “ हम विमल गुरुंग के साथ हैं. अब गोरखालैंड बनाने का समय आ गया है. ”
गौरखालैंड बनाने का समय आ गया है
कानू सान्याल
भाकपा-माले के राष्ट्रीय सचिव कानू सान्याल तत्काल दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग गठित करने की मांग करते हुए कहते हैं कि गोरखालैंड में सिलीगुड़ी शामिल हो या न हो यह प्रशासन का मामला है.
तो क्या इस बार भी पृथक गोरखालैंड की मांग के लिए खून की नदियां बहेंगी ?
हजार से भी अधिक लोगों की बलि लेने वाले सुभाष घीसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के आंदोलन के साथी और अबके कट्टर विरोधी विमल गुरुंग कहते हैं- “ कंप्यूटर और इंटरनेट के जमाने में हम बंदूक या बम से नहीं, कलम से लड़ेंगे. यह जनतांत्रिक आंदोलन है.”
हो सकता है, गुरुंग सही कह रहे हों लेकिन गुरुंग के आंदोलन ने इस इलाके के खुशगवार मौसम में एक गरमाहट ला दी है. जाहिर है, इस पहाड़ी इलाके की गरमी से दिल्ली का तापमान भी बढ़ेगा और सबकी आंखें यहां दिल्ली पर ही लगी है.(Rawivar:http://www.raviwar.com/news/6_Tez_hua_gorkhaland_andolan_alokputul.shtml
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